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यस्मि॑न्वृ॒क्षे म॒ध्वद॑: सुप॒र्णा नि॑वि॒शन्ते॒ सुव॑ते॒ चाधि॒ विश्वे॑। तस्येदा॑हु॒: पिप्प॑लं स्वा॒द्वग्रे॒ तन्नोन्न॑श॒द्यः पि॒तरं॒ न वेद॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasmin vṛkṣe madhvadaḥ suparṇā niviśante suvate cādhi viśve | tasyed āhuḥ pippalaṁ svādv agre tan non naśad yaḥ pitaraṁ na veda ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्मि॑न्। वृ॒क्षे। म॒धु॒ऽअदः॑। सु॒ऽप॒र्णाः। नि॒ऽवि॒शन्ते॑। सुव॑ते। च॒। अधि॑। विश्वे॑। तस्य॑। इत्। आ॒हुः॒। पिप्प॑लम्। स्वा॒दु। अग्रे॑। तत्। न। उत्। न॒श॒त्। यः। पि॒तर॑म्। न। वेद॑ ॥ १.१६४.२२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:22 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:18» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:22


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! (यस्मिन्) जिस (विश्वे) समस्त (वृक्षे) वृक्ष पर (मध्वदः) मधु को खानेवाले (सुपर्णाः) सुन्दर पंखों से युक्त भौंरा आदि पक्षी (नि विशन्ते) स्थिर होते हैं (अधि, सुवते, च) और आधारभूत होकर अपने बालकों को उत्पन्न करते (तस्य, इत्) उसीके (पिप्पलम्) जल के समान निर्मल फल को (अग्रे) आगे (स्वादु) स्वादिष्ठ (आहुः) कहते हैं और (तत्) वह (न) न (उत् नशत्) नष्ट होता है अर्थात् वृक्षरूप इस जगत् में मधुर कर्मफलों को खानेवाले उत्तम कर्मयुक्त जीव स्थिर होते और उसमें सन्तानों को उत्पन्न करते हैं उसका जल के समान निर्मल कर्मफल संसार में होना इसको आगे उत्तम कहते हैं। और नष्ट नहीं होता अर्थात् पीछे अशुभ कर्मों के करने से संसाररूप वृक्ष का जो फल चाहिये सो नहीं मिलता (यः) जो पुरुष (पितरम्) पालनेवाले परमात्मा को (न, वेद) नहीं जानता वह इस संसार के उत्तम फल को नहीं पाता ॥ २२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में रूपकालङ्कार है। अनादि अनन्त काल से यह विश्व उत्पन्न होता और नष्ट होता है, जीव उत्पन्न होते और मरते भी जाते हैं, इस संसार में जीवों ने जैसा कर्म किया वैसा ही अवश्य ईश्वर के न्याय से भोग्य है। कर्म, जीव का भी नित्यसम्बन्ध है। जो परमात्मा और उसके गुण, कर्म, स्वभावों के अनुकूल आचरण को न जानकर मनमाने काम करते हैं, वे निरन्तर पीड़ित होते हैं और जो उससे विपरीत हैं, वे सदा आनन्द भोगते हैं ॥ २२ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वांसो यस्मिन् विश्वे वृक्षे मध्वदः सुपर्णा जीवा निविशन्तेऽधि सुवते च तस्येत्पिप्पलमग्रे स्वाद्वाहुः। तन्नोन्नशत् यः पितरं न वेद स तन्न प्राप्नोति ॥ २२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) (वृक्षे) (मध्वदः) ये मधूनि कर्मफलानि वाऽदन्ति ते (सुपर्णाः) शोभनपर्णाः सुष्ठु पालनकर्माणः (नि, विशन्ते) निविष्टा भवन्ति (सुवते) जायन्ते (च) (अधि) (विश्वे) विश्वस्मिञ्जगति वा (तस्य) (इत्) एव (आहुः) कथयन्ति (पिप्पलम्) उदकमिव निर्मलं फलं कर्मफलं वा। पिप्पलमित्युदकना०। निघं० १। १२। (स्वादु) स्वादिष्ठम् (अग्रे) (तत्) (न) (उत्) (नशत्) नश्यति (यः) (पितरम्) परमात्मानम् (न) (वेद) जानाति ॥ २२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र रूपकालङ्कारः। अनाद्यनन्तात्कालादिदं विश्वं जायते विनश्यति जीवा जायन्ते म्रियन्ते च। अत्र जीवैर्यादृशं कर्म्माचरितं तादृशमेवावश्यमीश्वरन्यायेन भोक्तव्यमस्ति। कर्मजीवयोरपि नित्यः सम्बन्धः। ये परमात्मानं तद्गुणकर्मस्वभावानुकूलाचरणं चाविदित्वा यथेष्टमाचरन्ति ते सततं पीड्यन्ते येऽतो विपरीतास्ते सदानन्दन्ति ॥ २२ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात रूपकालंकार आहे. अनादि अनन्त काळापासून हे विश्व उत्पन्न होते व नष्ट होते. जीव उत्पन्न होतात व मृत्यू पावतात. या जगात जीवांनी जसे कर्म केले तसेच ईश्वरी न्यायाप्रमाणे अवश्य भोगावे लागते. कर्म व जीवाचा नित्य संबंध आहे. जे परमात्मा व त्याच्या गुण कर्म स्वभावाच्या अनुकूल आचरण न करता मनाला वाटेल तसे काम करतात. ते सदैव त्रस्त असतात. जे या विपरीत असतात ते सदैव आनंद भोगतात. ॥ २२ ॥